नई दिल्ली, 2 मार्च 2021

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता की ओर से उठाए गए सवालों की वजह से पार्टी ‘सेक्युलरिज्म’ के मुद्दे पर घर में ही घिरती नजर आ रही है। पार्टी के लिए मुश्किल ये है कि ऐसा ऐसे वक्त में हो रहा है, जब चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। इनमें से तीन राज्य ऐसे हैं, जहां उसकी धर्मनिरपेक्षता के दावे पर प्रश्नचिन्ह खड़े किए जा रहे हैं। ये तीनों राज्य हैं- असम, पश्चिम बंगाल और केरल। जहां तक केरल की बात है तो वहां लगभग पांच दशकों से इसका मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन है। लेकिन, तात्कालिक विवाद असम और पश्चिम बंगाल में उसके फैसले की वजह से शुरू हुआ है। पार्टी देश में खुद को भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले फिर से खड़े करना चाहती है, जिसपर वह और उसके तमाम सहयोगी सांप्रदायिक होने का आरोप लगाते रहे हैं। लेकिन, अब उसे खुद इस तरह के आरोप झेलने पड़ रहे हैं।

कांग्रेस का केरल में मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन

केरल में मुसलमानों की आबादी करीब 26 फीसदी है। यहां मुस्लिम वोट बैंक पर हमेशा से इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का दबदबा रहा है। एक मुस्लिम लीग का इतिहास भारत के विभाजन से जुड़ा हुआ है। अलबत्ता, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग खुद को ज्यादा प्रगतिशील सोच की मानती है। वह कट्टरवादी और नफरत वाली विचारधारा के खिलाफ काम करने का भी दावा करती है। लेकिन, तथ्य यही है कि इस पार्टी का गठन ठेठ धार्मिक आधार पर ही हुआ है। क्योंकि, केरल के करीब 18 फीसदी क्रिश्चियन समुदाय और बहुसंख्यक आबादी के बीच अपनी हैसियत बचाए रखनी है। लेकिन,कांग्रेस का यहां धर्म के आधार पर बनी इस पार्टी के साथ 1970 के दशक से गठबंधन है। इसके नेता ई अहमद यूपीए सरकार में मंत्री भी रहे हैं।

महाराष्ट्र में कांग्रेस मिला चुकी है शिवसेना से हाथ

कांग्रेस हमेशा से शिवसेना को सांप्रदायिक पार्टी मानती रही थी। लेकिन, आज महाराष्ट्र में शिवसेना के उद्धव ठाकरे की अगुवाई में महा विकास अघाड़ी की सरकार है, जिसे कांग्रेस समर्थन कर रही है। पार्टी के कई विधायक मंत्री बने हुए हैं। अशोक चव्हाण जैसे नेता भी शिवसेना की अगुवाई वाली सरकार में मंत्री हैं, जो पहले कांग्रेस के सरकार में मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। यह वही पार्टी है,जिसपर एक समय में कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी से भी ज्यादा सांप्रदायिक होने का आरोप लगाती थी।

असम में बदरुद्दीन अजमल को लिया साथ

असम विधानसभा चुनाव में कांग्रेस इस बार इत्र किंग बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ समेत 6 दलों के ‘महाजोत’ की अगुवाई कर रही है। एआईयूडीएफ वही सियासी दल है, जिसका 2006 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई मजाक उड़ाते थे। लेकिन, आज 126 सदस्यीय राज्य विधानसभा में 40 से 45 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं के जोड़ के चलते पार्टी उसके साथ मिलाकर चुनाव लड़ रही है। जबकि, अजमल की पार्टी असम में खुले तौर पर बांग्लाभाषी मुसलमानों की पार्टी मानी जाती है और मुसलमान ही उसकी राजनीति के केंद्र में हैं।

बंगाल में फुरफुरा शरीफ के मौलवी से गठबंधन

कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के दावों का सबसे ज्यादा मजाक इसबार के पश्चिम बंगाल चुनाव में उसके गठबंधन को लेकर उड़ रहा है। यहां पार्टी लेफ्ट फ्रंट के साथ चुनावी तालमेल कर चुकी है। इस गठबंधन में बंगाल के मशहूर फुरफुरा शरीफ के मौलवी अब्बास सिद्दीकी की नई-नवेली पार्टी भी शामिल हुई है। सिद्दीकी ने बंगाल चुनाव के लिए ही इंडियन सेक्युलर फ्रंट बनाई है। यह भी पूरी तरह से मुसलमानों की ही बात करने वाली पार्टी है। फुरफुरा शरीफ का बंगाल की राजनीति में दबदबा लंबे समय से रहा है और अब वह फ्रंट फुट पर खेलने उतरी है तो लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस उसका सहयोग लेने और समर्थन देने के लिए तैयार हैं। वैसे कांग्रेस यह दलील देकर अपना कथित ‘सेक्युलर’ चेहरा बचाने की कोशिश कर रही है कि आईएसएफ के लिए लेफ्ट फ्रंट ने अपनी सीटें छोड़ी हैं।

कांग्रेस के ‘सेक्युलरिज्म’ पर अब पार्टी के अंदर से उठ गया है सवाल

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा में विपक्ष के उप नेता आनंद शर्मा ने बंगाल में फुरफुरा शरीफ के मौलवी से पार्टी के गठबंधन पर उंगलियां उठा दी हैं। उन्होंने कहा है कि ऐसे संगठनों से हाथ मिलाना पार्टी के ‘गांधीवादी-नेहरुवादी धर्मनिरपेक्षता की मूल विचारधारा’ का उल्लंघन है। उन्होंने पूछा है कि बिना कांग्रेस वर्किंग किमिटी को भरोसे में लिए ऐसा फैसला क्यों लिया जाता है। उन्होंने पार्टी पर सीधा तंज किया है कि अपनी सुविधा के अनुसार सांप्रदायिकता के खिलाफ चुनिंदा लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।